hindisamay head


अ+ अ-

कविता

रात

महेश वर्मा


कभी मांसल, कभी धुआँती कभी डूबी हुई पसीने में
ख़ूब पहचानती है रात अपनी देह के सभी रंग

कभी इसकी खड़खड़ाती पसलियों में गिरती रहतीं पत्तियाँ
कभी टपकती ठंडी ओस इसके बालों से

यह खुद चुनती है रात अपनी देह के सभी रंग

यह रात है जो खुद सजाती है अपनी देह पर
लैंप पोस्ट की रोशनी और चाँदनी का उजास

ये तारे सब उसकी आँख से निकलते हैं
या नहीं निकलते जो रुके रहते बादलों की ओट

ये उसकी इच्छाएँ हैं अलग-अलग सुरों की हवाएँ

तुम्हारी वासना उसका ही खिलवाड़ है तुम्हारे भीतर
ऐसे ही तुम्हारी कविता

यह एकांत उसकी साँस है
जिसमें डूबता आया है दिनों का शोर और पंछियों की उड़ान

तुम्हारा दिन उसी का सपना है।

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में महेश वर्मा की रचनाएँ